भारत में हिंदू राज्य की बात करना पागलपल
यह संयोग ही था कि जब राजधानी दिल्ली के कुछ चुनींदा हिस्सों में साप्रदायिकता की चिनगारियां उठ रही थीं, मुझे एक किताब मिली- ``सरदार पटेल तथा भारतीय मुसलमान''। यह पुस्तक मैं पहले भी पढ़ चुका था। लगभग तीन दशक पहले स्वर्गीय रफीक ज़कारिया ने अंग्रेज़ी में लिखी थी यह किताब। डा. ज़करिया ने वह किताब मुझे भेजी थी और चाहा था कि पुस्तक के लोकार्पण समारोह में मैं उपस्थित रहूं। मुझे याद है तब मैंने इन पुस्तक का भारत की सभी भाषाओं में अनुवाद किये जाने की बात कही थी। पुस्तक के प्रकाशक, भारतीय विद्या भवन के निदेशक स्वर्गीय एस. रामकृष्णन ने मेरी बात का समर्थन करते हुए हिंदी अनुवाद का आश्वासन दिया। यह उसी अनुवाद का चौथा संस्करण है, जो मुझे दिल्ली के हाल के दंगों के दौरान मिला था। मैं फिर से इसे पढ़ गया, और सोच रहा हूं, देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने विभाजन के उस दौर में हिंदू-मुसलमानों की एकता की महत्ता को कितनी शिद्दत से समझा था, और क्या-क्या नहीं किया उन्होंने दोनों के रिश्तों को मधुर बनाये रखने के लिए। मैं यह भी सोच रहा था कि उस दौरान, और उसके बाद भी सरदार पटेल पर बहुसंख्यक हिंदुओं का पक्षधर होने के आरोप भी लगते रहे थे। डा. ज़करिया ने अपनी इस किताब में बड़ी दृढ़ता और स्पष्टता के साथ उन तथ्यों को सामने रखा है जो सरदार पटेल को हिंदुओं का समर्थक या मुसलमानों का विरोधी बताने वालों के लिए एक करारा जवाब हैं।
जब सरदार पटेल पर मुस्लिम-विरोधी होने के आरोप लग रहे थे, तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, ``सरदार को मुसलमान-विरोधी कहना सच्चाई का उपहास उड़ाना हैं।'' गांधीजी ने यह भी कहा था कि ``सरदार का दिल इतना बड़ा है कि उसमें सब समा सकते हैं।'' स्वयं सरदार पटेल ने उस समय स्पष्ट शब्दों में कहा था, ``हिंदू-मुसलमान एकता एक कोमल पौधे जैसी है। इसे हमें लंबी अवधि तक बड़े ध्यान से पालना होगा, क्योंकि हमारे दिल अभी उतने साफ नहीं है, जितने होने चाहिए'।
पुस्तक में ये शब्द पढ़ते हुए मैं ठिठक-सा गया। दिल्ली के कुछ इलाकों में जो इन दिनों घटा, वह सब मेरी आंखों के सामने आ गया। और मैं जैसे अपने आप से कह रहा था, आज़ादी हासिल करने के ७३ साल बाद भी, एक पंथ-निरपेक्ष राष्ट्र की शपथ लेने के बाद भी, हमारे दिल उतने साफ क्यों नहीं हो पाये, जितने होने चाहिए थे? क्यों हम जब-तब साप्रदायिकता के शिकार हो जाते हैं? क्यों हम अपनी एकता के कोमल पौधे को प्यार से, ध्यान से नहीं पाल रहे ? क्यों हमें झंडों के रंग याद रहते हैं और हम यह भूल जाते हैं कि सबके खून का रंग एक ही है?
यह सही है कि राजधानी दिल्ली में नफरत की आग को आपसी भाईचारे की भावना ने ज़्यादा फैलने नहीं दिया, पर लगभग पचास लोगों का मारा जाना, लगभग तीन सौ लोगों का घायल होना और सैंकड़ों दुकानों-घरों का जलाया जाना किसी भी दृष्टि से छोटी बात नहीं है। सच बात तो यह है कि साप्रदायिक दंगे में किसी एक भी भारतीय का मारा जाना भारत के उस विचार की हत्या की शर्मनाक कोशिश है, जिसे हम गंगा-जमुनी तहज़ीब वाली सभ्यता और वसुधैव कुटुम्बकम की संस्कृति की परिभाषा कहते हैं।
डा. ज़करिया की सरदार पटेल वाली पुस्तक की भूमिका में देश के जाने-माने वकील ननी पालखीवाला ने सत्ता के संघर्ष में क्षेत्रीयता, धर्म, जाति आदि के नाम पर राजनीति का खतरनाक खेल करने वालों को आगाह किया है कि भले ही इससे अल्पकालिक राजनीतिक लाभ मिल जाये, पर आगे चलकर पूरे देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। सच तो यह है कि अपनी नादानी से हम यह कीमत लगातार चुका रहे हैं। हमारे नेता दावे भले ही कुछ कर रहे हों, पर राजनीति के नाम पर जो कुछ देश में हो रहा है, वह किसी भी दृष्टि से देश के हित में नहीं है। धर्म और जाति के नाम पर वोट बैंक बनाने-मानने की मानसिकता को किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता और पिछले दिनों दिल्ली में जो कुछ हुआ वह, इसी मानसिकता का एक डराने वाला परिणाम है। डरानेवाला इसलिए कि न तो हम अबतक हुए साप्रदायिक दंगों से कुछ सीखे हैं और न ही कुछ सीखने की तैयारी दिख रही है।
उपद्रवों की पहल किसने की, भड़काया किसने, पुलिस की भूमिका का औचित्य कैसे सिद्ध होगा, कौन अपने राजनीतिक स्वार्थों की रोटियां सेक रहा है जैसे सवाल उठाये जा रहे हैं। राजनेता आरोपों-प्रत्यारोपों की एक होड़ में लगे दिख रहे हैं। समझने की बात यह है कि ऐसी कोई भी होड़ वैयक्तिक अथवा दलीय स्वार्थों की पूर्ति में भले ही सहायक बनती दिखती हो, पर इस सब में राष्ट्र तो घाटे में ही रहेगा। और यह ऐसा घाटा है जिसकी पूर्ति संभव नहीं है।
साप्रदायिकता की यह राजनीति औचित्य की किसी भी शर्त को पूरा नहीं करती। यह विध्वंस की राजनीति है। हमें यह भी नहीं भूलना है कि इसी राजनीति के चलते अक्सर हिंदू राष्ट्र की बात उठ जाती है। हमारे संविधान-निर्माताओं ने, जिनमें सरदार पटेल की विशिष्ट भूमिका रही, बहुत सोच-समझकर सर्व धर्म समभाव की नीति अपनायी थी। जिन्ना ने भले ही धर्म के नाम पर बटवारा करवाया हो, पर हमारे नेताओं ने कभी नहीं स्वीकारा कि देश हिंदू राष्ट्र बनाया जाये- सबने एक ऐसे राष्ट्र का सपना देखा था, जिसमें सब धर्मों के फूल खिल सकें, जो हर भारतीय का देश हो। आज सरदार पटेल को हिंदुओं का हित-चिंतक बताने की कोशिशें हो रही हैं। वे सबके हित-चिंतक थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था, `भारत में हिंदू राज की बात करना एक पागलपन है, इससे भारत की आत्मा मर जायेगी'। उन्होंने यह सिर्फ कहा ही नहीं, इस बात की ईमानदार कोशिश भी की भारत की जनता इस `पागलपन' से बचे। हमें इस बात को नहीं भूलना है कि सरदार पटेल की सबसे बड़ी चिंता राष्ट्रीय एकता थी। जिन्ना के उपदेशों को ग़लत सिद्ध करने को उन्होंने अपनी ``पहली समस्या'' बताया था और कहा था, ``भारत के मुसलमान सुरक्षित और स्वतंत्र रहें, यह देखना हमारा काम है।''
सवाल सिर्फ मुसलमानों की स्वतंत्रता-सुरक्षा का नहीं था, हर भारतीय की सुरक्षा का था। आज भी यही सवाल है और हमेशा रहेगा। हमारा संविधान हर भारतीय की स्वतंत्रता-सुरक्षा की गारंटी देता है। पर इस गारंटी का औचित्य तभी है जब हर भारतीय दूसरे भारतीय की सुरक्षा-स्वतंत्रता-प्रगति के प्रति चिंतित हो। जब हम सब स्वंय को पहले भारतीय समझें, फिर कुछ और। इस संदर्भ में संविधान सभा में सरदार पटेल की भूमिका हमारा मार्गदर्शन कर सकती है। डा. ज़करिया की पुस्तक में इसकी विस्तार से चर्चा है।
- विश्वनाथ सचदेव