रिश्वत के राजमार्ग

देश के विकास में राजमार्गों की बड़ी भूमिका होती है, उनके सहारे ही देश दौड़ता हैलेकिन अगर देश की रीढ़ जैसे जरूरी राजमागी पर भारतीयों को हर साल ४८ हजार करोड़ रुपये की रिश्वत अदा करनी पड़ती है, तो यह न केवल दुखद, बल्कि शर्मनाक भी है। सड़क सुरक्षा की पैरोकारी करने वाले संगठन सेफ लाइफ फाउंडेशन (एसएलएफ) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, राजमागी पर रिश्वत लेने में सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, ४८ हजार करोड़ रुपये की रिश्वत तो सिर्फ व्यावसायिक वाहनों को चुकानी पड़ती है। यदि इसमें राजमार्गी पर चलने वाले अन्य प्रकार के वाहनों को भी जोड़ दिया जाए, तो राजमार्गों पर वसूली जा रही कुल रिश्वत की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। कौन है ये रिश्वतखोर, और कौन हैं, जो इन रिश्वतखोरों को पाल रहे हैं? राष्ट्रीय विकास और ईमानदारी की बुनियाद में छेद करने वाले लोग कौन हैं? राजमार्गों पर देश की विकासशील संपन्नता पर डाका डालने वाले लोग कौन हैं? राजमार्गों की बड़ी कमजोरी की पोल खोलती यह रिपोर्ट बताती है कि विगत एक दशक में राजमागी पर चल रही रिश्वतखोरी के मामलों में १२० प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। यह एक आम धारणा रही है कि डिजिटल दौर में रिश्वतखोरी घटेगी, लेकिन सर्वे से सामने आई जमीनी हकीकत इसके विपरीत बयान कर रही है। एक अन्य धारणा यह भी है कि जगह-जगह सीसीटीवी कैमरों के कारण भी रिश्वतखोरी घटेगी, लेकिन शायद यहां भी नाकामी हाथ लगी है। डिजिटल और सीसीटीवी का कोई लाभ न होना हमें ही नहीं, सरकार को भी सोचने पर विवश करे, तो ही बात बनेगी। सरकार को अपने स्तर पर इस रिपोर्ट की जमीनी पड़ताल करनी चाहिए। रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि राजमार्गी पर कथित धार्मिक वजहों और चंदे के नाम पर ड्राइवरों से पैसे वसूलने वालों की भी कोई कमी नहीं है। यह रिपोर्ट वसूली के विस्तार में जाकर बताती है कि स्थानीय पुलिस जहां रिश्वत के रूप में हर साल २२,००० करोड़ रुपये लेती है, वहीं क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय (आरटीओ) के अधिकारी सालाना १९,५०० करोड़ रुपये की रिश्वत वसूल लेते हैं। जाहिर है, इतनी भारी रिश्वत की कीमत देश अपने पिछड़ेपन से और देश के लोग महंगाई भुगतकर चुकाते हैं। इस स्याह सच की पड़ताल सरकार को जरूर करनी चाहिए। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, २५ फरवरी को राजस्थान में एक बस अनियंत्रित होकर नदी में जा गिरी और २४ लोग मारे गए। पता यह चला कि बस के कागज पूरे नहीं थे, वह अवैध रूप से दौड़ रही थी। यहां यह स्वाभाविक सवाल पैदा होता है कि क्या बिना रिश्वत ऐसी बसों या वाहनों का चलना मुमकिन है? क्या ऐसी सिलसिलेवार दुर्घटनाओं के बावजूद परिवहन विभाग के अफसरों और पुलिस की मोटी चमड़ी का कभी इलाज हुआ है? यदि इस आर्थिक-सामाजिक महामारी का सही इलाज होता, तो यह नौबत ही नहीं आती। यह बात छिपी नहीं है कि राजमार्गों की गुणवत्ता सुधरी है। नएनए राजमार्ग बन रहे हैं, लगातार चौड़े हो रहे हैं। लोगों को परिवहन में पहले की तुलना में सहूलियत भी हो रही है, लेकिन अगर राजमागी पर रिश्वत की वसूली बढ़ी है या जारी भी है, तो कहना न होगा कि राजमागी की गुणवत्ता बढ़ने का यह दावा बेमानी है।


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