अधिकार के लिए कोशिश करना मेरा कर्तव्य
दिल्ली देश की राजधानी है, पर देश के नागरिक दिल्ली के नागरिक नहीं है। नहीं, यह कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है, यह तो मतलब है उस बात का जो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में इलाज के लिए आए मरीजों के बारे में कही है। कोरोनावायरस से राजधानी दिल्ली को उबारने के लिए अपनी अब तक की विफलता के दाग को अपने चेहरे से मिटाने के लिए कोई राजनेता क्या कर सकता है, उसका एक उदाहरण है राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री का इस आशय का बयान। उनका कहना-मानना है कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में दिल्ली के मरीजों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है, इसलिए दिल्ली के बाहर से आए मरीजों को इलाज के लिए भर्ती नहीं किया जा सकता। वे चाहें तो दिल्ली में केंद्र सरकार के अस्पतालों में इलाज करा सकते हैं। आंकड़े देकर बताया गया है कि दिल्ली के कोरोना पीडित मरीजों के इलाज के लिए जून के अंत तक १५ हजार अतिरिक्त बिस्तरों की आवश्यकता होगी, जबकि दिल्ली सरकार द्वारा संचालित अस्पतालों में वर्तमान व्यवस्था १० हजार बिस्तर की है!
एक कहानी पढ़ी थी बचपन में। गणित के एक अध्यापक अपने बेटे को साथ लेकर नदी पार कर रहे थे। उन्होंने नदी की औसत गहराई नापी। ४ फुट थी। उनका बेटा ५ फुट का था। गणित के हिसाब से वह सुरक्षित नदी पार कर सकता था। पर नदी के मध्य तक ही पहुंच पाया वह, और डूब गया। अध्यापक महोदय ने फिर हिसाब लगाया। औसत गहराई ४ ही फुट थी। उन्होंने अपने आप से कहा बेटा गया तो गया, पर मेरा हिसाब गलत नहीं था!
मुझे लग रहा है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री का हिसाब भी गलत नहीं है, पर इसके चलते देश की नागरिकता का अर्थ खतरे में पड़ रहा है। सवाल दिल्ली सरकार या केंद्र सरकार का नहीं है, सवाल देश के उस बीमार नागरिक का है जिसे देश के संविधान ने देश में कहीं भी जाने, रहने, बसने का अधिकार दिया है। इसके साथ ही समानता का अधिकार हमारे संविधान के चार पायों में से एक है। ‘मेरी जिम्मेदारी दिल्ली के नागरिकों के प्रति है’ कह कर राज्य के मुख्यमंत्री देश के नागरिकों के प्रति अपने कर्तव्य से मुंह चुरा रहे हैं। यह गलती नहीं, अपराध है। हालांकि दिल्ली के राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के आदेश को निरस्त कर दिया है, पर इससे अपराध की गंभीरता कम नहीं होती।
फिर, बात सिर्फ मरीजों के इलाज तक ही सीमित नहीं है, और दिल्ली के मुख्यमंत्री ही इस संदर्भ में अपराधी नहीं हैं। पिछले ३ महीनों में हमने देखा है कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी अपने राज्य के प्रवासी मजदूरों को लेकर इसी तरह की मानसिकता का परिचय दिया है। राज्यों की सीमाएं सील कर दी गई। कोविद के संक्रमण के खतरे के नाम पर इन मजदूरों के आवागमन पर रोक लगा दी गई। महाराष्ट्र में बसा मजदूर बिहार लौटना चाहता था, पर रास्ते में ही उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश की सीमा पर उसे रोक दिया गया! यूपी की सरकार ‘अपने’ विद्यार्थियों को राजस्थान से लाने के लिए बसें कोटा भेजती है, गुजराती मजदूरों को उत्तराखंड से वापस लाने के लिए गुजरात की सरकार बसें भेजती है, पर वह यह जरूरी नहीं समझती कि इन्हीं बसों से गुजरात में फंसे उत्तराखंड के मजदूरों को ले जाया जाए। यह सब उसी बीमार मानसिकता के उदाहरण और परिणाम हैं जो आसेतु हिमालय भारत को टुकड़ों में बांट कर देखती है। पहले भी इस तरह के उदाहरण देखने को मिलते रहे हैं। रोजगार की कमी के नाम पर उत्तर भारत से महाराष्ट्र में आए प्रवासियों को रोकने की कोशिशें और उसके परिणाम देश देख चुका है, बंगाल और तमिलनाडु में भी इसी तरह परप्रांतियों को अवांछित घोषित किया गया था। असम और मणिपुर में भी इसी मानसिकता को कई बार देखा जा चुका है।
‘हम भारत के लोग’ इन चार शब्दों से शुरू होता है हमारा संविधान जिसमें हमने समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आधार पर ‘एक भारत’ के निर्माण का संकल्प लिया था। यह सही है कि हमारे राज्यों के गङ्गन का एक आधार भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता भी थी, पर यह विभाजन भाषाई और क्षेत्रीय पहचान को बनाए रखने के लिए था, देश के नागरिकों को बांटने के लिए नहीं। मैं गुजराती या बंगाली या पंजाबी या तमिल कुछ भी हो सकता हूं, पर इससे पहले मेरी पहचान एक भारतीय होने की है। किसी राज्य में बसने के कारण मेरे कुछ अधिकार और कर्तव्य हो सकते हैं, पर इन सब से कहीं अधिक महत्वपूर्ण समानता का अधिकार है जो संविधान ने मुझे एक भारतीय के रूप में दिया है। इस अधिकार को सीमित करके अथवा छीनने की कोई भी कोशिश इस देश के नागरिक के प्रति एक अपराध है। और एक नागरिक के नाते ही ऐसी कोशिश का विरोध करना मेरा कर्तव्य है।
- विश्वनाथ सचदेव