परमार्थ साधना का एकमात्र उपाय है योगविद्या : प्रो. हरिशंकर उपाध्याय
प्रो. उपाध्याय ने योग की अवधारणा और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए अपने सारगर्भित व्याख्यान में कहा कि योग की मूल अवधारणा अनासक्ति की है। गांधी जी ने अनासक्ति योग को अहिंसा दर्शन माना है। अहिंसा का तात्पर्य आत्मशुद्धि यानि मन और शरीर का निर्विकार होना है। उन्होंने महाभारत और गीता का संदर्भ देते हुए इसे योग से जोड़कर व्याख्यायीत किया। जर्मन के सुविख्यात दार्शनिक कांट का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि कांट ने कर्म का निरुपण कर भावनावश और कृतज्ञतावश किये गये कर्म की चर्चा की परंतु कांट ने इन्हें नैतिक नहीं माना। शुभसंकलपपूर्वक और पवित्र संकल्प के साथ गये कर्म को उन्होंने योग्य माना। उन्होंने कहा कि कर्म को करते हुए आनंद की अनुभूति आवश्यक है। प्रो. उपाध्याय ने कहा कि योगविद्या की जितनी भी साधनाएं चाहे वह वेदांत, बौद्ध और जैन दर्शन की हो उनका विलय अंत में योगविद्या में ही होता है। योगविद्या हमारी पहचान और अस्मिता है। वर्तमान समय में योग की अंतरराष्ट्रीय पहचान को भी उन्होंने रेखांकित किया।